आखिर संसदीय स्थायी समिति ने भी वही सवाल उठाया, जो शिक्षा की गुणवत्ता के मद्देनजर कई राज्य सरकारें व कुछ दूसरे पक्षकार भी उठाते रहे हैं। संसदीय समिति ने भी एक से आठवीं कक्षा तक के बच्चों को बिना किसी परीक्षा के अगली कक्षाओं में सीधे प्रोन्नत करने संबंधी शिक्षा के अधिकार कानून (आरटीई) के प्रावधान पर सरकार को फिर से विचार करने का सुझाव दिया है।
मानव संसाधन विकास मंत्रलय से संबंधित संसदीय स्थायी समिति का स्पष्ट मत है कि आठवीं तक के स्कूली बच्चों को बिना परीक्षा के अगली कक्षा में
भेजने (स्वत: प्रोन्नति) का शिक्षा की गुणवत्ता पर बुरा असर पड़ना लाजिमी है। समिति का तर्क है कि यदि किसी भी छात्र को यह पहले से पता है कि वह अपनी कक्षा में फेल नहीं होगा, अगली कक्षा में उसकी प्रोन्नति तय है तो वह अपनी पढ़ाई से सीखने-समझने के लिए कड़ी मेहनत करने को प्रेरित नहीं होगा। उस उम्र में अमूमन वह इतना परिपक्व भी नहीं होता कि समङो कि कक्षा नौ से आगे की औपचारिक परीक्षा में बैठने और न्यूनतम अंक हासिल करने का वास्तविक निहितार्थ क्या होता है? जबकि, उसी क्रम में बच्चों के शिक्षक, यहां तक कि उनके माता-पिता भी उन्हें पढ़ाई के लिए प्रेरित करने के प्रयास हमेशा नहीं कर सकते। समिति ने कानून के इस पहलू को कई दूसरी चुनौतियों की रोशनी में भी गौर किया है। मसलन पांचवीं में पढ़ने वाले 46.3 प्रतिशत बच्चे कक्षा दो की भी पुस्तक नहीं पढ़ पाते। सरकारी स्कूलों में 2010 में यह स्थिति 49.3 प्रतिशत थी, जो 2011 में 56.2 प्रतिशत और 2012 में 58.3 प्रतिशत तक पहुंच गई। इसी तरह 2009 में कक्षा तीन के 53.4 प्रतिशत बच्चे कक्षा एक की किताबें नहीं पढ़ पाते थे। बाद के वर्षो में इस प्रतिशतता में और भी इजाफा हुआ है। मार्च, 2012 तक की स्थिति यह थी कि उसके पीछे के कुछ वर्षो में 29 लाख बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ चुके थे। उसमें भी बड़े राज्यों में उत्तर प्रदेश के 34 प्रतिशत, बिहार के 17 प्रतिशत, राजस्थान के 12 व पश्चिम बंगाल के नौ प्रतिशत बच्चे शामिल थे। इतना ही नहीं, ग्रामीण क्षेत्रों के अनुसूचित जाति, जनजाति के 12 प्रतिशत बच्चे खेती या दिहाड़ी मजदूरी करते हैं। जबकि, लाखों स्कूली शिक्षकों की कमी है ही। उस पर बुनियादी ढांचे की स्थिति भी खराब है। ऐसे में गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई कैसे हो सकती है। समिति ने आरटीई के तहत सभी जरूरी मानकों को पूरा किए जाने में लापरवाही पर कड़ी नाराजगी जताई है। खास तौर से निजी स्कूलों में वंचित तबकों के छात्रों के लिए 25 प्रतिशत आरक्षित सीटों पर दाखिले में उदासीनता उसे नागवार गुजरी है। अभी तक सिर्फ 13 राज्यों में इसके तहत दाखिला शुरू किया गया है।
भेजने (स्वत: प्रोन्नति) का शिक्षा की गुणवत्ता पर बुरा असर पड़ना लाजिमी है। समिति का तर्क है कि यदि किसी भी छात्र को यह पहले से पता है कि वह अपनी कक्षा में फेल नहीं होगा, अगली कक्षा में उसकी प्रोन्नति तय है तो वह अपनी पढ़ाई से सीखने-समझने के लिए कड़ी मेहनत करने को प्रेरित नहीं होगा। उस उम्र में अमूमन वह इतना परिपक्व भी नहीं होता कि समङो कि कक्षा नौ से आगे की औपचारिक परीक्षा में बैठने और न्यूनतम अंक हासिल करने का वास्तविक निहितार्थ क्या होता है? जबकि, उसी क्रम में बच्चों के शिक्षक, यहां तक कि उनके माता-पिता भी उन्हें पढ़ाई के लिए प्रेरित करने के प्रयास हमेशा नहीं कर सकते। समिति ने कानून के इस पहलू को कई दूसरी चुनौतियों की रोशनी में भी गौर किया है। मसलन पांचवीं में पढ़ने वाले 46.3 प्रतिशत बच्चे कक्षा दो की भी पुस्तक नहीं पढ़ पाते। सरकारी स्कूलों में 2010 में यह स्थिति 49.3 प्रतिशत थी, जो 2011 में 56.2 प्रतिशत और 2012 में 58.3 प्रतिशत तक पहुंच गई। इसी तरह 2009 में कक्षा तीन के 53.4 प्रतिशत बच्चे कक्षा एक की किताबें नहीं पढ़ पाते थे। बाद के वर्षो में इस प्रतिशतता में और भी इजाफा हुआ है। मार्च, 2012 तक की स्थिति यह थी कि उसके पीछे के कुछ वर्षो में 29 लाख बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ चुके थे। उसमें भी बड़े राज्यों में उत्तर प्रदेश के 34 प्रतिशत, बिहार के 17 प्रतिशत, राजस्थान के 12 व पश्चिम बंगाल के नौ प्रतिशत बच्चे शामिल थे। इतना ही नहीं, ग्रामीण क्षेत्रों के अनुसूचित जाति, जनजाति के 12 प्रतिशत बच्चे खेती या दिहाड़ी मजदूरी करते हैं। जबकि, लाखों स्कूली शिक्षकों की कमी है ही। उस पर बुनियादी ढांचे की स्थिति भी खराब है। ऐसे में गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई कैसे हो सकती है। समिति ने आरटीई के तहत सभी जरूरी मानकों को पूरा किए जाने में लापरवाही पर कड़ी नाराजगी जताई है। खास तौर से निजी स्कूलों में वंचित तबकों के छात्रों के लिए 25 प्रतिशत आरक्षित सीटों पर दाखिले में उदासीनता उसे नागवार गुजरी है। अभी तक सिर्फ 13 राज्यों में इसके तहत दाखिला शुरू किया गया है।
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