शिक्षा विभाग की लापरवाहियों, निर्थक प्रयोगवाद और निर्णयों की अतार्किकता के दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। शिक्षा का आधारभूत ढांचा मजबूत नहीं हो रहा, कई अन्य कारणों से बच्चों को सरकारी स्कूलों की ओर मोड़ने में कामयाबी नहीं मिल रही। रेवाड़ी जिले में 15 राजकीय प्राथमिक स्कूल बंद कर दिए गए क्योंकि छात्रों की संख्या 25 से भी कम रह गई। हिसार जिले में छह ऐसे स्कूलों को बंद किया जा रहा है। कई और जिलों में तैयारी चरम पर है, हो सकता है मौलिक शिक्षा विभाग सप्ताह भर में इनकी संख्या स्पष्ट कर दे। इन स्कूलों के
बच्चों व स्टाफ को निकटवर्ती स्कूलों में समायोजित करने की प्रक्रिया चल रही है। अब तक कुछ भी स्पष्ट नहीं है कि ये मापदंड विभाग ने कब तय किए, कब अमल शुरू हुआ और कब तक चलेगा? विभाग के अधिकारी केवल यह बता रहे हैं कि छात्र संख्या कम होने पर स्कूल बंद किए गए। यह बताने से सभी बच रहे हैं कि राजकीय प्राथमिक पाठशाला में बच्चे क्यों नहीं आना चाहते? कई सवाल हैं जिनका शिक्षा विभाग को जवाब देना होगा। क्या राजकीय प्राथमिक स्कूल केवल दोपहर भोजन योजना के लिए हैं? बच्चों का पंजीकरण ही एकमात्र उद्देश्य है? निर्धनतम परिवार का भी सपना होता है कि उसका बच्चा अच्छे स्कूल में पढ़े। अच्छे स्कूल से तात्पर्य निजी विद्यालय से है। सरकारी स्कूल की ऐसी छवि बनाने के लिए शिक्षा विभाग ने क्या प्रयास किए? यदि मिडिल स्कूलों में ऐसी ही स्थिति बनी तो क्या उन्हें भी बंद कर दिया जाएगा? छात्र कम होने पर स्कूल बंद करने की परंपरा किसी संदर्भ में उचित नहीं माना जा सकता। उन कारणों का ईमानदारी से पता क्यों नहीं लगाया जा रहा जिनकी वजह से अभिभावक सरकारी स्कूलों को प्राथमिकता नहीं देते? शंकाओं के समाधान और बेहतर वर्तमान व भविष्य का भरोसा दिला कर ही सरकारी स्कूलों की दुर्दशा होने से रोका जा सकता है। विभाग और सरकार को अपनी छवि की चिंता नहीं पर उन बच्चों के भविष्य की तो परवाह करे जिनको सत्र के मध्य किसी और स्कूल में भेजा जा रहा है। क्या वहां का वातावरण उन्हें अनुकूल लगेगा? नए अध्यापक, नए कमरे, नए सहपाठी, सभी के साथ अभ्यस्त होने में उन्हें जितना समय लगेगा, उस दौरान उनकी पढ़ाई निश्चित तौर पर बाधित रहेगी। शिक्षा विभाग को फजीहत का सिलसिला रोकने के लिए गंभीर होना होगा। छात्रों की कमी से स्कूल बंद करना जिम्मेदारी-जवाबदेही से भागने जैसा है।
बच्चों व स्टाफ को निकटवर्ती स्कूलों में समायोजित करने की प्रक्रिया चल रही है। अब तक कुछ भी स्पष्ट नहीं है कि ये मापदंड विभाग ने कब तय किए, कब अमल शुरू हुआ और कब तक चलेगा? विभाग के अधिकारी केवल यह बता रहे हैं कि छात्र संख्या कम होने पर स्कूल बंद किए गए। यह बताने से सभी बच रहे हैं कि राजकीय प्राथमिक पाठशाला में बच्चे क्यों नहीं आना चाहते? कई सवाल हैं जिनका शिक्षा विभाग को जवाब देना होगा। क्या राजकीय प्राथमिक स्कूल केवल दोपहर भोजन योजना के लिए हैं? बच्चों का पंजीकरण ही एकमात्र उद्देश्य है? निर्धनतम परिवार का भी सपना होता है कि उसका बच्चा अच्छे स्कूल में पढ़े। अच्छे स्कूल से तात्पर्य निजी विद्यालय से है। सरकारी स्कूल की ऐसी छवि बनाने के लिए शिक्षा विभाग ने क्या प्रयास किए? यदि मिडिल स्कूलों में ऐसी ही स्थिति बनी तो क्या उन्हें भी बंद कर दिया जाएगा? छात्र कम होने पर स्कूल बंद करने की परंपरा किसी संदर्भ में उचित नहीं माना जा सकता। उन कारणों का ईमानदारी से पता क्यों नहीं लगाया जा रहा जिनकी वजह से अभिभावक सरकारी स्कूलों को प्राथमिकता नहीं देते? शंकाओं के समाधान और बेहतर वर्तमान व भविष्य का भरोसा दिला कर ही सरकारी स्कूलों की दुर्दशा होने से रोका जा सकता है। विभाग और सरकार को अपनी छवि की चिंता नहीं पर उन बच्चों के भविष्य की तो परवाह करे जिनको सत्र के मध्य किसी और स्कूल में भेजा जा रहा है। क्या वहां का वातावरण उन्हें अनुकूल लगेगा? नए अध्यापक, नए कमरे, नए सहपाठी, सभी के साथ अभ्यस्त होने में उन्हें जितना समय लगेगा, उस दौरान उनकी पढ़ाई निश्चित तौर पर बाधित रहेगी। शिक्षा विभाग को फजीहत का सिलसिला रोकने के लिए गंभीर होना होगा। छात्रों की कमी से स्कूल बंद करना जिम्मेदारी-जवाबदेही से भागने जैसा है।
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