सरकारी स्कूलों में रेशनेलाइजेशन की कवायद अर्से से चल रही है, उद्देश्य यही रहा कि पढ़ाई का स्तर बेहतर हो और अध्यापकों की नियुक्ति तर्कसंगत हो। अध्यापकों की बेतरतीब भीड़ या कमी, दोनों से ही अनावश्यक बोझ बढ़ता है। संख्या बल को तर्कसंगत बनाने व कई अन्य पहलुओं पर सामंजस्य के लिए शिक्षा विभाग ने रेशनेलाइजेशन का फैसला लिया है। हालांकि शिक्षा विभाग की ओर से छात्र संख्या, सेक्शन व अध्यापकों की नियुक्ति पर कुछ राहत की पहल की है पर जरूरत है लक्ष्य के अवरोधों को दूर करने की। विभाग की ओर से
प्रक्रिया शुरू हुई तो शिक्षक वर्ग की ओर से कड़ा विरोध हुआ। खासतौर पर लेक्चरर वर्ग ने नौवीं, दसवीं के साथ दस जमा एक व दो को पढ़ाने की अनिवार्यता की बात सामने आने पर आंदोलन तक की चेतावनी दी थी। रेशनेलाइजेशन तीन स्तरों पर होना है। प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च स्तर की कक्षाओं में पहले अध्यापक की जवाबदेही निर्धारित करने की कवायद शुरू हुई, आंकड़े मांगे गए पर विरोध के चलते विभाग ने कदम पीछे हटा लिए। अब शिक्षा निदेशालय का दावा है कि तमाम आंकड़े आ चुके और कक्षाओं में पीरियड के आधार पर अध्यापकों की नियुक्ति होगी, उसी के अनुसार सेक्शन भी बनेंगे। विभाग की ओर से यह स्पष्ट नहीं किया जा रहा कि प्रावधानों में कितना बदलाव किया गया। विभाग को इस बात का भी अहसास होना चाहिए कि नई हिदायतों पर शिक्षक वर्ग कितनी सहजता या सहमति दिखाता है। अभी देखना बाकी है कि योजना पर कितना अमल हो पाता है? लागू करने के तरीके कितने व्यावहारिक व परिणामोन्मुखी होंगे? फिलहाल छठी से आठवीं तक रेशनेलाइजेशन होगा, बाकी कक्षाओं के लिए आधारभूत कार्य कितना पूरा हो चुका, इसकी भी जानकारी दी जानी चाहिए। शिक्षा विभाग की सबसे बड़ी समस्या नीतियों की अस्पष्टता है। योजनाओं पर अमल में इतने अवरोध सामने आते हैं कि लक्ष्य ओझल होने लगता है। एक पहलू यह भी है कि विषय विशेषज्ञ की अहमियत को महत्व कितना महत्व दिया जा रहा है। विज्ञान अध्यापक को गणित , एसएस टीचर को इंग्लिश व हिंदी अध्यापक को संस्कृत पढ़ाने की बाध्यता के प्रावधान को व्यावहारिक नहीं माना जा सकता। सेक्शन बनाने ,पीरियड संख्या आदि मसलों पर विभाग को अध्यापक वर्ग को विश्वास में लेना होगा। बेहतर होता उनकी राय को नीति का हिस्सा बनाया जाता। विभाग सुनिश्चित करे कि जिस भावना, उद्देश्य से रेशनेलाइजेशन की परिकल्पना की गई, उसका वही स्वरूप नजर आए ताकि असंतोष न फैले।
प्रक्रिया शुरू हुई तो शिक्षक वर्ग की ओर से कड़ा विरोध हुआ। खासतौर पर लेक्चरर वर्ग ने नौवीं, दसवीं के साथ दस जमा एक व दो को पढ़ाने की अनिवार्यता की बात सामने आने पर आंदोलन तक की चेतावनी दी थी। रेशनेलाइजेशन तीन स्तरों पर होना है। प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च स्तर की कक्षाओं में पहले अध्यापक की जवाबदेही निर्धारित करने की कवायद शुरू हुई, आंकड़े मांगे गए पर विरोध के चलते विभाग ने कदम पीछे हटा लिए। अब शिक्षा निदेशालय का दावा है कि तमाम आंकड़े आ चुके और कक्षाओं में पीरियड के आधार पर अध्यापकों की नियुक्ति होगी, उसी के अनुसार सेक्शन भी बनेंगे। विभाग की ओर से यह स्पष्ट नहीं किया जा रहा कि प्रावधानों में कितना बदलाव किया गया। विभाग को इस बात का भी अहसास होना चाहिए कि नई हिदायतों पर शिक्षक वर्ग कितनी सहजता या सहमति दिखाता है। अभी देखना बाकी है कि योजना पर कितना अमल हो पाता है? लागू करने के तरीके कितने व्यावहारिक व परिणामोन्मुखी होंगे? फिलहाल छठी से आठवीं तक रेशनेलाइजेशन होगा, बाकी कक्षाओं के लिए आधारभूत कार्य कितना पूरा हो चुका, इसकी भी जानकारी दी जानी चाहिए। शिक्षा विभाग की सबसे बड़ी समस्या नीतियों की अस्पष्टता है। योजनाओं पर अमल में इतने अवरोध सामने आते हैं कि लक्ष्य ओझल होने लगता है। एक पहलू यह भी है कि विषय विशेषज्ञ की अहमियत को महत्व कितना महत्व दिया जा रहा है। विज्ञान अध्यापक को गणित , एसएस टीचर को इंग्लिश व हिंदी अध्यापक को संस्कृत पढ़ाने की बाध्यता के प्रावधान को व्यावहारिक नहीं माना जा सकता। सेक्शन बनाने ,पीरियड संख्या आदि मसलों पर विभाग को अध्यापक वर्ग को विश्वास में लेना होगा। बेहतर होता उनकी राय को नीति का हिस्सा बनाया जाता। विभाग सुनिश्चित करे कि जिस भावना, उद्देश्य से रेशनेलाइजेशन की परिकल्पना की गई, उसका वही स्वरूप नजर आए ताकि असंतोष न फैले।
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