भाषाई अल्पसंख्यकों पर क्षेत्रीय भाषा थोपने का अधिकार नहीं
एजेंसीत्ननई दिल्ली
राज्यों को प्राथमिक कक्षाओं में भाषाई अल्पसंख्यकों पर क्षेत्रीय भाषा थोपने का कोई अधिकार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच ने यह व्यवस्था एक अन्य मामले में दी।
बेंच के सामने यह मसला कर्नाटक सरकार के 1994 के दो आदेशों के कारण पहुंचा था। इन आदेशों में कक्षा एक से चार तक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा देने को 'अनिवार्य' किया गया था। सरकार के इन्हीं आदेशों की वैधानिकता को चुनौती दी गई थी।
एजेंसी त्न नई दिल्ली
सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षा के अधिकार (आरटीई) कानून की संवैधानिकता को बरकरार रखते हुए एक अहम फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा कि इसके प्रावधान सरकारी सहायता प्राप्त या गैर-सहायता वाले अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों पर लागू नहीं होंगे। लेकिन यह कानून सभी गैर-सहायता वाले निजी स्कूलों पर लागू होते हैं। मतलब ऐसे सभी स्कूलों को 25 फीसदी गरीब बच्चों को दाखिला देना होगा।
आरटीई कानून के तहत यह
प्रावधान किया गया है। चीफ जस्टिस आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान बेंच ने यह फैसला सुनाया। बेंच ने कहा, 'अनुच्छेद 21 (क) संविधान के बुनियादी ढांचे को प्रभावित नहीं करता है। इसके अंतर्गत आरटीई कानून के तहत छह से 14 वर्ष के बच्चों को मुफ्त शिक्षा का अधिकार दिया गया है। कर्नाटक में कक्षा एक से चार तक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा प्रदान करना अनिवार्य किया गया था पिछले साल संविधान पीठ को भेजा मामला पिछले साल जुलाई में दो जजों की बेंच ने कहा था कि इस मसले पर संविधान बेंच विचार करेगी। न्यायालय ने कहा था कि यह मसला वर्तमान पीढ़ी के मौलिक अधिकारों से ही नहीं, बल्कि अभी जन्म लेने वाली पीढिय़ों से भी जुड़ा हुआ है। न्यायालय ने कहा था कि इस मसले को बड़ी पीठ के पास भेजना होगा, क्योंकि 1993 में दो सदस्यीय खंडपीठ ने प्राथमिक स्कूल के स्तर पर प्रत्येक बच्चे को मातृ भाषा कन्नड़ में ही अनिवार्य रूप से शिक्षा देने के कर्नाटक सरकार के आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था। यह है मामला सुप्रीम कोर्ट में 350 से अधिक निजी गैर-सहायता वाले स्कूलों के संगठन फेडरेशन ऑफ पब्लिक स्कूल्स ने याचिका दायर की थी। उनकी दलील थी कि यह कानून सरकार के हस्तक्षेप के बगैर ही उनके स्कूल संचालन के अधिकार का हनन करता है। हालांकि 2012 में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने भी इस कानून को वैध ठहराया था। लेकिन इसमें त्रुटि रह गई थी। कोर्ट ने संविधान बेंच द्वारा दी गई व्यवस्थाओं पर गौर नहीं किया था। इसके तहत सरकार निजी संस्थाओं के मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। गैर-सहायता वाले निजी स्कूलों ने इसी आधार पर फिर मसला उठाया। तब तीन जजों की बेंच ने 23 अगस्त, 2013 को मामला संविधान बेंच को सौंप दिया। अब संविधान बेंच ने इसे स्पष्ट कर दिया है।
प्रावधान किया गया है। चीफ जस्टिस आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान बेंच ने यह फैसला सुनाया। बेंच ने कहा, 'अनुच्छेद 21 (क) संविधान के बुनियादी ढांचे को प्रभावित नहीं करता है। इसके अंतर्गत आरटीई कानून के तहत छह से 14 वर्ष के बच्चों को मुफ्त शिक्षा का अधिकार दिया गया है। कर्नाटक में कक्षा एक से चार तक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा प्रदान करना अनिवार्य किया गया था पिछले साल संविधान पीठ को भेजा मामला पिछले साल जुलाई में दो जजों की बेंच ने कहा था कि इस मसले पर संविधान बेंच विचार करेगी। न्यायालय ने कहा था कि यह मसला वर्तमान पीढ़ी के मौलिक अधिकारों से ही नहीं, बल्कि अभी जन्म लेने वाली पीढिय़ों से भी जुड़ा हुआ है। न्यायालय ने कहा था कि इस मसले को बड़ी पीठ के पास भेजना होगा, क्योंकि 1993 में दो सदस्यीय खंडपीठ ने प्राथमिक स्कूल के स्तर पर प्रत्येक बच्चे को मातृ भाषा कन्नड़ में ही अनिवार्य रूप से शिक्षा देने के कर्नाटक सरकार के आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था। यह है मामला सुप्रीम कोर्ट में 350 से अधिक निजी गैर-सहायता वाले स्कूलों के संगठन फेडरेशन ऑफ पब्लिक स्कूल्स ने याचिका दायर की थी। उनकी दलील थी कि यह कानून सरकार के हस्तक्षेप के बगैर ही उनके स्कूल संचालन के अधिकार का हनन करता है। हालांकि 2012 में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने भी इस कानून को वैध ठहराया था। लेकिन इसमें त्रुटि रह गई थी। कोर्ट ने संविधान बेंच द्वारा दी गई व्यवस्थाओं पर गौर नहीं किया था। इसके तहत सरकार निजी संस्थाओं के मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। गैर-सहायता वाले निजी स्कूलों ने इसी आधार पर फिर मसला उठाया। तब तीन जजों की बेंच ने 23 अगस्त, 2013 को मामला संविधान बेंच को सौंप दिया। अब संविधान बेंच ने इसे स्पष्ट कर दिया है।
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