सुनने में अच्छा लगता है कि दसवीं की परीक्षा शुरू हो चुकी और दो दिन में एक भी यूएमसी केस नहीं बना, बाहरी हस्तक्षेप, उत्तर पुस्तिका लेकर भागने का कोई समाचार नहीं मिला। पहली बार शिक्षा बोर्ड के नियंत्रण से बाहर परीक्षा हो रही है। दूसरी तरफ लगता है शिक्षा बोर्ड अपनी हनक बरकरार रखना चाहता है। दसवीं की प्रथम सेमेस्टर परीक्षा की मार्किंग पर आधी रात को फैसला बदलना वास्तव में आश्यर्चजनक है। लगता है आपात बैठक या आपदा प्रबंध के महत्व-संदर्भ-प्रासंगिकता को बोर्ड समझ ही नहीं पा रहा। नए निर्णय के मुताबिक पेपरों की मार्किंग शिक्षा बोर्ड कराएगा, दलील यह दी गई कि स्कूलों में अध्यापकों की कमी है। विस्मित करने वाली बात यह है कि बोर्ड के नीति निर्धारकों को परीक्षा की पूर्व संध्या पर यह आभास हुआ कि
अध्यापकों की कमी है। शिक्षा बोर्ड जैसी नियामक संस्थाओं से अपेक्षा रहती है कि हर निर्णय में गंभीरता और दीर्घकालिक प्रभावशीलता दिखाई दे। समय के साथ शिक्षा बोर्ड का काम बढ़ा नहीं, घटा है। आठवीं की परीक्षा व मार्किंग का जिम्मा स्कूलों पर छोड़ने के बाद शिक्षा बोर्ड ने राहत की सांस ली थी क्योंकि सबसे अधिक परीक्षार्थी इसी कक्षा के होते हैं। पर्याप्त समय और स्टाफ होने के बावजूद कई फैसले ऐसे आए जिनमें दीर्घकालिक मंथन एवं योजनागत कौशल का अभाव दिखाई दिया। मार्किंग फिर अपने हाथ में ले कर शिक्षा बोर्ड ने अति उत्साह एवं उतावलापन दिखाया है। निर्णय के व्यावहारिक पहलुओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए। पहले उत्तर पुस्तिकाओं की सुरक्षा और गोपनीयता पर मंथन किया जाए। 1 प्रदेश में 53 मूल्यांकन केंद्र बनाए पर उत्तर पुस्तिका संग्रह केंद्र चौकीदार के हवाले छोड़ दिए गए। यहां तक कि पेपर सील करने की सामग्री नहीं भिजवाई गई। सील किए बिना ही कई जिलों में पेपर बीईओ कार्यालय में जमा करवा दी गई। बोर्ड की नई व्यवस्था दो चेहरों वाली है। परीक्षा के दौरान फ्लाइंग नहीं आएगी, न पुलिस का बंदोबस्त हुआ, स्कूल के अध्यापक ही परीक्षक, पर्यवेक्षक बनेंगे तो स्वाभाविक है कि परीक्षा प्रणाली की शुचिता भी उन्हीं के रहमोकरम पर रहेगी फिर मार्किंग का जिम्मा लेकर बोर्ड ने क्या साबित करने की कोशिश की है? क्या परीक्षा प्रणाली की गरिमा दो नावों पर डोलती नजर नहीं आएगी? आनन-फानन में लिये गए निर्णय व्यवस्था की नींव में दरार डालते हैं। मार्किंग से पहले परीक्षा संचालन का जिम्मा भी लिया जाता तभी दायित्व निर्वहन में समग्रता दिखाई देती।
अध्यापकों की कमी है। शिक्षा बोर्ड जैसी नियामक संस्थाओं से अपेक्षा रहती है कि हर निर्णय में गंभीरता और दीर्घकालिक प्रभावशीलता दिखाई दे। समय के साथ शिक्षा बोर्ड का काम बढ़ा नहीं, घटा है। आठवीं की परीक्षा व मार्किंग का जिम्मा स्कूलों पर छोड़ने के बाद शिक्षा बोर्ड ने राहत की सांस ली थी क्योंकि सबसे अधिक परीक्षार्थी इसी कक्षा के होते हैं। पर्याप्त समय और स्टाफ होने के बावजूद कई फैसले ऐसे आए जिनमें दीर्घकालिक मंथन एवं योजनागत कौशल का अभाव दिखाई दिया। मार्किंग फिर अपने हाथ में ले कर शिक्षा बोर्ड ने अति उत्साह एवं उतावलापन दिखाया है। निर्णय के व्यावहारिक पहलुओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए। पहले उत्तर पुस्तिकाओं की सुरक्षा और गोपनीयता पर मंथन किया जाए। 1 प्रदेश में 53 मूल्यांकन केंद्र बनाए पर उत्तर पुस्तिका संग्रह केंद्र चौकीदार के हवाले छोड़ दिए गए। यहां तक कि पेपर सील करने की सामग्री नहीं भिजवाई गई। सील किए बिना ही कई जिलों में पेपर बीईओ कार्यालय में जमा करवा दी गई। बोर्ड की नई व्यवस्था दो चेहरों वाली है। परीक्षा के दौरान फ्लाइंग नहीं आएगी, न पुलिस का बंदोबस्त हुआ, स्कूल के अध्यापक ही परीक्षक, पर्यवेक्षक बनेंगे तो स्वाभाविक है कि परीक्षा प्रणाली की शुचिता भी उन्हीं के रहमोकरम पर रहेगी फिर मार्किंग का जिम्मा लेकर बोर्ड ने क्या साबित करने की कोशिश की है? क्या परीक्षा प्रणाली की गरिमा दो नावों पर डोलती नजर नहीं आएगी? आनन-फानन में लिये गए निर्णय व्यवस्था की नींव में दरार डालते हैं। मार्किंग से पहले परीक्षा संचालन का जिम्मा भी लिया जाता तभी दायित्व निर्वहन में समग्रता दिखाई देती।
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