Monday, March 30, 2015

सांझे शिक्षा बचाओ शिक्षा बढ़ाओ सम्मेलन रोहतक

18 संगठनों के सांझे शिक्षा बचाओ शिक्षा बढ़ाओ सम्मेलन रोहतक में सभी वक्ताओं ने बहुत ही शिक्षाप्रद बातें रखी -
शिक्षाविद् और प्रोफेसर रोहित धनखड़ जी ने अपनी सारी बातें बड़े ही सीधे और सहज रूप में तर्कपूर्ण ढंग से रखीं। उनकी कही कुछ बातों के अंश :
1. -- जब शिक्षा की गुणवत्ता को बाज़ार के माध्यम से आंकेंगे, तो उसकी गुणवत्ता को खरीददार ही तय करेगा। अब उदाहरण के लिए साहित्य में यदि गुणवत्ता बाज़ार के हिसाब से तय करें तो ..मुंशी प्रेमचंद से
ज्यादा गुलशन नंदा ज्यादा गुणवत्तापूर्ण लगेंगे और रविन्द्र नाथ टैगोर से ज्यादा चेतन भगत गुणवत्तापूर्ण नज़र आएँगे क्योंकि गुलशन और भगत की लिखी पुस्तकें टैगोर और प्रेमचंद से ज्यादा धन कमा रही हैं।
2. -- अच्छी शिक्षा से पहले अच्छे जीवन की कल्पना पहले करनी होगी। अब अच्छा जीवन भी हर शासन
व्यवस्था में भिन्न हो सकता है।
लेकिन प्रजातंत्र में अच्छे जीवन की परिभाषा में निम्न शामिल हो सकता है:
a. व्यक्ति के स्वायत्त विचार हों
b. व्यक्ति सामाजिक व राजनैतिक रूप से क्रियाशील भी हो, अन्याय का विरोध भी करे
c. संवेदनशील- ये भावना हो कि दूसरा व्यक्ति भी मेरे जैसा ही है। जो तुम्हारे विरुद्ध है वो दूसरों से न करें।
d. उसमें ज्ञान, मूल्य, दक्षता हो
e. उत्पादन में मददगार हो- लेकिन Economics मानवीय मूल्यों के अधीन हो।
(Democracy में अच्छे जीवन की परिभाषा को सार्वभौम होना पड़ेगा)
Competition या Healthy competition हमेशा ही Unhealthy होती है। क्योंकि प्रतिस्पर्धा हमेशा ही दूसरे किसी इंसान के साथ ही होती है, उसे किसी रूप में पछाड़ने हेतू ही होती है, अतः वह संवेदना से नहीं जुड़ सकती।
शिक्षा प्रक्रिया में 3 भागीदार हैं :
1. शिक्षक
2. शिक्षा तंत्र
3. समाज
-इसमें शिक्षक को पूर्ण स्वायत्तता देनी होगी तभी वह गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा दे पाएगा।
-स्कूल, जो अपने को सरकार का अंग मानने लगे, उसे समुदाय से पुनः जुड़ना होगा।
-उपरोक्त 3 भागीदारों में एक शिक्षक ही ऐसी इकाई है जो आगे आकर स्थिति को संभाल सकता है। क्योंकि तंत्र कभी भी ऐसा कोई प्रयास नहीं करने वाला...।
शिक्षा के भगवाकरण से भी शिक्षक ही अच्छे से निपट सकता है यदि वह 'गीता' या ऐसे ही किसी धार्मिक ग्रन्थ को पढाते वक्त उसमें संदेह करने, प्रश्न करने और तर्क के आधार पर प्रमाण मांगने की आदत का विकास करे तो, या तो उक्त ग्रन्थ का महत्त्व स्वतः ही कम हो जाएगा या सरकार खुद ही हटा लेगी। इसे एक अवसर के तौर पर लिया जा सकता है। इससे ज्यादा डरने की आवश्यकता नहीं।
- सुधीर

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