नियमों को ताक पर रख कर आरोही स्कूलों में प्रिंसिपलों की नियुक्ति करने से एक बार फिर साबित हो गया कि शिक्षा क्षेत्र की नियुक्ति व पदोन्नति प्रक्रिया में छिद्रों की भरमार है। सिरसा, जींद और फतेहाबाद में प्रिंसिपलों की नियुक्तियों पर सवाल उठे हैं और ये प्रश्न आम आदमी ने चस्पा नहीं किए बल्कि करनाल, जींद और कुरुक्षेत्र के जिला शिक्षा अधिकारियों ने उठाए हैं। उनका निष्कर्ष है कि न केवल नियमों को दरकिनार किया गया बल्कि अनुभव प्रमाणपत्रों की सत्यता भी नहीं परखी गई। आवेदन व साक्षात्कार में दिखाए गए अनुभव प्रमाणपत्र भी अलग-अलग पाए गए। आवेदकों के दावों की तफ्तीश में यहां तक उदासीनता दिखाई गई कि जिस पद का अनुभव प्रमाणपत्र संलग्न किया गया, संबंधित स्कूल में वह पद ही नहीं था। एक मामले में तो स्कूल के वाइस
पिं्रसिपल का अनुभव अनिवार्य था लेकिन बीएड कालेज का प्रमाणपत्र संलग्न कर दिया गया। इन उदाहरणों से स्पष्ट हो रहा है कि शिक्षा विभाग में अंधेरगर्दी चरम पर है। इस तथ्य पर गौर किया जाना चाहिए कि जो आवेदक फर्जी या अप्रासंगिक प्रमाणपत्र के आधार पर नियुक्ति पा लेता है वह विद्यार्थियों के लिए क्या आदर्श स्थापित करेगा। बार-बार चेताने के बाद भी शिक्षा विभाग जैसे अपने अतार्किक प्रयोगवाद से छुटकारा नहीं पाना चाहता, उसी तरह भर्ती व पदोन्नति प्रक्रिया की स्थिर व स्थायी नीति बनाने में भी उसकी रुचि दिखाई नहीं दे रही। अस्थिर व तात्कालिक सरोकार से जुड़ी नीति के कारण किसी लक्ष्य की प्राप्ति में कामयाबी मिलती दिखाई नहीं दे रही। सरकारी स्कूलों के कामकाज की निगरानी व समीक्षा के लिए गठित समितियों की जवाबदेही अब तक तय नहीं हो पाई। शिक्षकों के खाली पद भरने के लिए पिछले दो दशक से स्थायी नीति बनाए जाने की अपेक्षा की जा रही थी पर लगता है इंतजार की घड़ियां समाप्त होने में अभी और समय लगेगा। इसी दौरान गेस्ट टीचरों के रूप में अस्थायी, अनुबंधित शिक्षकों का ऐसा वर्ग आ खड़ा हुआ जिसका वर्तमान और भविष्य लचर भर्ती नीति के कारण अधर में लटका हुआ है। उनकी नियुक्ति प्रक्रिया में भी व्यापक स्तर पर घालमेल हुआ था। मुख्य मुद्दा यह है कि शिक्षक भर्ती और पदोन्नति की स्थायी नीति बनाने और अप्रासंगिक प्रयोगवाद बंद करने की ठोस पहल करने में विलंब क्यों किया जा रहा है? पिं्रसिपलों की नियुक्ति में फर्जीवाड़ा शिक्षा विभाग की साख पर बड़ा सवाल है, नीति की पारदर्शिता और स्पष्टता से ही ऐसे मामलों की पुनरावृत्ति रोकी जा सकती है।
पिं्रसिपल का अनुभव अनिवार्य था लेकिन बीएड कालेज का प्रमाणपत्र संलग्न कर दिया गया। इन उदाहरणों से स्पष्ट हो रहा है कि शिक्षा विभाग में अंधेरगर्दी चरम पर है। इस तथ्य पर गौर किया जाना चाहिए कि जो आवेदक फर्जी या अप्रासंगिक प्रमाणपत्र के आधार पर नियुक्ति पा लेता है वह विद्यार्थियों के लिए क्या आदर्श स्थापित करेगा। बार-बार चेताने के बाद भी शिक्षा विभाग जैसे अपने अतार्किक प्रयोगवाद से छुटकारा नहीं पाना चाहता, उसी तरह भर्ती व पदोन्नति प्रक्रिया की स्थिर व स्थायी नीति बनाने में भी उसकी रुचि दिखाई नहीं दे रही। अस्थिर व तात्कालिक सरोकार से जुड़ी नीति के कारण किसी लक्ष्य की प्राप्ति में कामयाबी मिलती दिखाई नहीं दे रही। सरकारी स्कूलों के कामकाज की निगरानी व समीक्षा के लिए गठित समितियों की जवाबदेही अब तक तय नहीं हो पाई। शिक्षकों के खाली पद भरने के लिए पिछले दो दशक से स्थायी नीति बनाए जाने की अपेक्षा की जा रही थी पर लगता है इंतजार की घड़ियां समाप्त होने में अभी और समय लगेगा। इसी दौरान गेस्ट टीचरों के रूप में अस्थायी, अनुबंधित शिक्षकों का ऐसा वर्ग आ खड़ा हुआ जिसका वर्तमान और भविष्य लचर भर्ती नीति के कारण अधर में लटका हुआ है। उनकी नियुक्ति प्रक्रिया में भी व्यापक स्तर पर घालमेल हुआ था। मुख्य मुद्दा यह है कि शिक्षक भर्ती और पदोन्नति की स्थायी नीति बनाने और अप्रासंगिक प्रयोगवाद बंद करने की ठोस पहल करने में विलंब क्यों किया जा रहा है? पिं्रसिपलों की नियुक्ति में फर्जीवाड़ा शिक्षा विभाग की साख पर बड़ा सवाल है, नीति की पारदर्शिता और स्पष्टता से ही ऐसे मामलों की पुनरावृत्ति रोकी जा सकती है।
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